Monday, November 26, 2007

पढ़ पढ़ कर कागज़ का पुलिंदा हुआ जा रहा हूँ ,साल दर साल , परत पर परत चढ़ती जा रही है ,आशाओं का बोझ इतना बढ़ गया के अब संभाला नही जाता है ,इतना सब करके भी एक खालीपन , एक अधूरापन ,सोचता हूँ , के कब यह कागज़ का व्यर्थ बंडल ज्ञान की भट्टी मे झुलसकर, भस्म होकर अमर हो जाएगा .

1 comment:

Ashutosh said...

जल के भस्म हो जाने में क्या मज़ा है ... सुपुर्द- ऐ- ख़ाक तो एक दिन सब को हो जाना है, तब तक सुलगते रहो और साहिर लुध्यान्वी के इस शेर को याद करो -

ज़िंदगी एक सुलगती सी चिता है साहिर
शोला बनती है ना ये बुझ के धुआ होती है ....