Friday, December 3, 2010

हिसाब

मेरी ज़िन्दगी और में अक्सर एक दूसरे से सवाल करते हैं
के मैं अपनी ज़िन्दगी से परेशां हूँ या मेरी ज़िन्दगी मुझ से
क्या गुज़रा और क्या कर गुज़रे .. अपनी ही ग़लती थी
बिना नब्ज़ पर हाथ रखे ज़िन्दगी से पल पल का हिसाब माँगा

ज़िन्दगी की धुप से रूह ख़ाक हो जाती है, ईमान झुलस जाते हैं
लहू और पसीना सूखा जाता है, फिर अरमान क्या चीज़ हैं जी
अरमान तो धुवां होने ही थे .. अपनी ही ग़लती थी
ख़्वाब भी भला कभी हक़ीकत होते हैं .. हमने ज़िन्दगी से एक सच्चा ख़्वाब माँगा

टेढ़ी मेढ़ी दुनिया में ये सीधी सपाट ज़िन्दगी ... जद्दोजहत इतनी के दम निकलने पर भी दम न मिले
.. अपनी ही ग़लती थी .. ज़िन्दगी भी तो ख़ाली ही हाथ है ...
हमने ज़िन्दगी से दम न माँगा .. रंग औ बू औ रुबाब माँगा